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“मुद्रास्फीति” (Inflation)-परिभाषा, प्रकार, वर्गीकरण एवं प्रभाव–

“मुद्रास्फीति” (Inflation) क्या है?

वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य में निरंतर बढ़ोतरी की दशा, जिससे मुद्रा की क्रय क्षमता में कमी उत्पन्न हो, मुद्रास्फीति कहलाती है। आम बोलचाल की भाषा में से महंगाई कहते हैं।

परंतु वास्तव में महंगाई, मुद्रास्फीति का एक कारक है। मुद्रास्फीति के कारण हमारी अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। क्योंकि उपभोग महंगा हो जाता है, बचत स्वयं नीचे आ जाती है।

जैसे-जैसे मूल्य में बढ़ोतरी के कारण एक मुद्रा की क्रय क्षमता में कमी उत्पन्न होती है एवं क्रय क्षमता शून्य हो जाती है, उस मुद्रा को उस अर्थव्यवस्था से बाहर कर दिया जाता है।

वर्तमान में भारत में प्रयोग होने वाली सबसे छोटी मुद्रा 50 पैसा है। परंतु 50 पैसे के सिक्के का प्रयोग मात्र 10 rupya तक के भुगतान के उद्देश्य ही किया जा सकता है। एक सिक्के में उतने ही मूल्य की धातु का प्रयोग होना चाहिए, जो की सिक्के के बाजारी मूल्य के बराबर अथवा उससे कम हो।

मुद्रास्फीति का प्रभाव-

मुद्रास्फीति का सर्वाधिक प्रभाव समाज के निर्धन वर्ग पर पड़ता है। ऐसा इसलिए क्योंकि समाज के इस वर्ग के पास अधिशेष नहीं होता है।

अत: इसका उपयोग प्रभावित होता है, जबकि समाज के समृद्ध वर्ग के पास अधिशेष होता है, जिसका प्रयोग वह किसी संपत्ति में निवेश के उद्देश्य कर सकता है। मूल्यों में बढ़ोतरी के कारण उसका उपभोग महंगा होता है, अर्थात किए गए निवेश से लाभ उत्पन्न होता है, जो कि उपभोग पर पड़े प्रतिकूल प्रभाव को शून्य कर देता है।

मुद्रास्फीति के कारण ऋण देने वाले को हानि होती है, जबकि लेने वाले को लाभ। यही कारण है, कि अपने लाभ को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से बैंक बढ़ती हुई मुद्रास्फीति के साथ-साथ ब्याज दरों में बढ़ोतरी करती है।

इसके कारण ऋण प्राप्त करना महंगा होता है। अतः उपभोग एवं निवेश दोनों ही प्रभावित होते हैं। जो की आर्थिक समृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। यदि बैंकों में रखी गई जमा राशि पर ब्याज दर, मुद्रास्फीति की दर से कम हो, तब जमाकर्ता को हानि होती है।

अतः धनराशि को जमा रखने की जगह और उसका उपभोग करेगा।

मुद्रास्फीति का वर्गीकरण-

मुद्रास्फीति को दो प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है-

  1. कारण के आधार पर मुद्रास्फीति के प्रकार
  2. दर के आधार पर मुद्रास्फीति के प्रकार

कारण के आधार पर मुद्रास्फीति के प्रकार-

कारण के आधार पर मुद्रास्फीति को तीन प्रमुख प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है-

  • मांग जनित मुद्रास्फीति Demand pull Inflation
  • लागत जनित मुद्रास्फीति Cost push Inflation
  • संरचनात्मक मुद्रास्फीति Structural Inflation

मांग जनित मुद्रास्फीति (Demand pull Inflation)-

यह किसी भी अर्थव्यवस्था में मांग में बढ़ोतरी के कारण उत्पन्न होती है। यदि आय में बढ़ोतरी के कारण, रोजगार के अतिरिक्त अवसरों के कारण, बैंकों से आसानी से कम ब्याज दर पर ऋण की प्राप्ति के कारण अथवा सरकार के सरकार के सार्वजनिक व्यय में बढ़ोतरी के कारण, अर्थव्यवस्था में मुद्रा का प्रवाह अर्थात तरलता बढ़ जाए, तब उपभोक्ता के पास अधिशेष धनराशि बचती है।

इसका प्रयोग अधिक से अधिक उपभोग के उद्देश्य होता है, जिससे मांग बढ़ती है। यदि बढ़ी हुई मांग की सही मात्रा में, सही समय पर आपूर्ति न हो पाए, तब मूल्यों में बढ़ोतरी होती है, जिसे मांग प्रेरित मुद्रास्फीति कहते हैं। अन्य शब्दों में यदि समग्र मांग, समग्र आपूर्ति से अधिक हो जाए तो मांग जनित मुद्रास्फीति उत्पन्न होती है।

रत जैसे विकासशील अर्थव्यवस्था में रोजगार के अवसर निरंतर उत्पन्न होते हैं। लोग निरंतर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते है। आत: ऐसे में मांग जनित मुद्रास्फीति का उत्पन्न होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। सरकार द्वारा प्रायोजित कल्याणकारी योजनाएं भी मांग जनित मुद्रास्फीति को बढ़ावा देती है।

यही कारण है, कि हर एक अर्थव्यवस्था में रोजगार के अतिरिक्त अवसरों को जन्म देकर बेरोजगारी की दर को कम किया जाता है। परंतु बेरोजगारी की दर को इस प्रकार से काम किया जाता है, जिससे मुद्रास्फीति नियंत्रण से बाहर ना चली जाए।

इसे Non Accelereting Inflation Rate of Unemployment (NAIRU) कहते हैं। ऐसी समस्याओं से बचने के उद्देश्य से यह सुनिश्चित किया जाता है, कि रोजगार के अवसर उत्पादक क्षेत्रों में उत्पन्न किए जाएं, जिससे मांग में बढ़ोतरी के साथ-साथ आपूर्ति भी सुनिश्चित हो।

मांग जनित मुद्रास्फीति आर्थिक समृद्धि से संबंधित होती है, अर्थात जैसे-जैसे मांग बढ़ती है, पीछे से उत्पादन भी बढ़ता है। अतः यदि मांगजनित मुद्रास्फीति नियंत्रण में हो तब यह किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेत है।

लागत जनित/ प्रेरित मुद्रास्फीति (Cost Push inflation)-

यह प्रत्यक्ष तौर पर मांग से संबंधित नहीं होती है, परंतु इसका मांग से अप्रत्यक्ष संबंध हो सकता है। यह उत्पादन की प्रक्रिया में लागत में बढ़ोतरी के कारण उत्पन्न होती है, अर्थात यदि कच्चे माल अथवा किसी भी अन्य प्रकार की उत्पादन में बढ़ोतरी हो जाए, तब अंतिम उत्पादित वस्तु अथवा प्रदान की गई सेवा स्वत: महंगी हो जाती है।

उदाहरण स्वरूप- यदि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल महंगा हो जाए तब डीजल स्वत: महंगा हो जाएगा। क्योंकि डीजल उत्पादन की प्रक्रिया में प्रयोग किया जाने वाला सबसे प्रमुख ईंधन है।

इसके महंगे होने से अन्य वस्तुएं एवं सेवाएं स्वत: महंगी हो जाती है। यह लागत जनित मुद्रास्फीति है।

नोट- आयातित उत्पादों के मूल्य में वृद्धि के कारण होने वाली मुद्रास्फीति को आयातित मुद्रास्फीति (Imported Inflation) कहते हैं।

संरचनात्मक मुद्रास्फीति (Structural Inflation)-

यह किसी भी अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक समस्याओं के कारण उत्पन्न होती है। यदि अर्थव्यवस्था में उत्पादन पर्याप्त भी हो, एवं मांग भी सामान्य रहे, तब भी भंडारण की सुविधा की कमी के कारण, परिवहन की सुविधा में कमी इत्यादि के कारण मूल्य में बढ़ोतरी संभव है। यह संरचनात्मक मुद्रास्फीति कहलाती है।

संरचनात्मक मुद्रास्फीति जमाखोरी(Hoarding), कालाबाजारी(Black marketing), व्यावसायिक सामूहिकरण(Cartelisation) इत्यादि के कारण उत्पन्न होती है।

जमाखोरी(Hoarding) वह प्रक्रिया है, जिसके अंतर्गत एक बिचौलिया अथवा व्यापारी किसी वस्तु को उत्पादक से अतिरिक्त मात्रा में खरीद कर उसे बाजार तक पहुंचाने पहुंचाने नहीं देता है एवं लंबे समय तक उसे संरक्षित कर, बाजार में उस वस्तु की कृत्रिम कमी को जन्म देता है।

कालाबाजारी(Black marketing) वह प्रक्रिया है जिसमें वस्तु या उत्पाद को गलत जगह या गलत तरीके से बेचा जाए। जैसे- पीडीएस के खाद्यान्न की खुले बाजार में बिक्री।

व्यावसायिक सामूहिकरण(Cartelisation) वह प्रक्रिया है, जिसके अंतर्गत कई उत्पादक प्रतिस्पर्धा को दरकिनार कर आपसी सहमति से अपने उत्पाद का मूल्य बढ़ा देते हैं, जिससे उपभोक्ता बढ़े हुए मूल्य पर उसे वस्तु को खरीदने के लिए विवश हो जाता है।

भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति के यह तीनों ही प्रारूप उपस्थित हैं। क्योंकि भारत एक विकासशील अर्थव्यवस्था है, इसलिए यहां रोजगार के अवसर निरंतर उत्पन्न हो रहे हैं।

बुनियादी निर्माण एवं कल्याणकारी योजनाओं के कारण भी अर्थव्यवस्था में तरलता सामान्य से अधिक रहती है। साथ ही काले धन का प्रवाह भी देखा जा सकता है।

अतः ऐसे में मांग जनित मुद्रास्फीति निरंतर उपस्थित रहती है। कई संसाधनों के उत्पादन में भारत आत्मनिर्भर नहीं है। अतः कच्चे माल की आपूर्ति के उद्देश्य आयात पर आश्रितता कायम रही है।

इसी कारण अंतरराष्ट्रीय बाजार में जैसे ही इन संसाधनों का मूल्य बढ़ता है, लागत मुद्रास्फीति उत्पन्न हो जाती है। भंडारण की सुविधाओं में कमी के कारण, परिवहन की सुविधाओं की दुरुस्त न होने के कारण जमाखोरी, कालाबाजारी, व्यावसायिक सामूहीकरण इत्यादी जैसी समस्याओं के कारण संरचनात्मक का मुद्रास्फीति भी उपस्थित रही है।

भारत में मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी आरबीआई की रही है। सरकार इस उद्देश्य से लक्ष्य निर्धारित करती है एवं आरबीआई लक्ष्य प्राप्त करने के लिए मौद्रिक नीतियों को उसी के अनुरूप जारी करती है।

परंतु मौद्रिक नीतियों के माध्यम से आरबीआई मात्र, मांग जनित मुद्रास्फीति को ही नियंत्रित कर सकती है।

मौद्रिक नीतियों के माध्यम से आरबीआई मात्र, बैंकिंग व्यवस्था में तरलता को नियंत्रित कर सकती है एवं ऋण के प्रवाह को कम कर सकती है। परंतु अर्थव्यवस्था का वह हिस्सा जो कि काले धन के रूप में होता है, आरबीआई मौद्रिक नीतियों के माध्यम से उसे नियंत्रित नहीं कर सकती है।

साथ यदि, आरबीआई तरलता को नियंत्रित करने का प्रयास करें, परंतु सरकार के सार्वजनिक व्यय आवश्यकता से अधिक हो जाए। ऐसे में भी मांग जनित मुद्रास्फीति को नियंत्रित करना कठिन हो जाता है।

लागत जनित मुद्रास्फीति को परिदान के माध्यम से सरकार ही कम कर सकती है। अत: इसमें आरबीआई की भूमिका नहीं रह जाती है। संरचनात्मक समस्याएं भी आरबीआई के नियंत्रण से बाहर होती है।

अत: इसमें भी सरकार की ही भूमिका होती है। अत: यह कहा जा सकता है, कि मुद्रास्फीति पर नियंत्रण RBI एवं सरकार दोनों के सम्मिलित प्रयास से ही संभव है।

दर के आधार पर मुद्रास्फीति के प्रकार

जिस दर पर मुद्रास्फीति बढ़ती है, उस आधार पर भी इसे 4 अलग-अलग प्रारूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है-

रेंगती हुई मुद्रास्फीति(Creeping Inflation)-

जब मुद्रास्फीति की तरह 3% तक रहे, तब तक यह रेंगती हुई मुद्रास्फीति कहलाती है। सामान्यत विकसित अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति का यह प्रारूप उपस्थित रहता है।

यह किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए एक अच्छा संकेत है ,जो यह दर्शाता है, कि अर्थव्यवस्था में मांग कायम है एवं उपभोग हो रहा है जिसके कारण आर्थिक संवृद्धि होती रहेगी।

चलती हुई मुद्रास्फीति (Walking andTrotting Inflation)-

जब मुद्रास्फीति की दर 3% से 10% के बीच रहे, तब इसे चलती हुई मुद्रास्फीति कहते हैं। विकासशील अर्थव्यवस्था में यह एक सामान्य स्थिति है।

वहां मांग जनित, संरचनात्मक समस्याएं तथा लागत प्रेरित मुद्रास्फीति तीनों का ही प्रभाव दिखता है। यह इस बात का भी संकेत है, कि अब मुद्रास्फीति को नियंत्रित किया जाना चाहिए।

भागती हुई मुद्रास्फीति(Runaway Inflation)-

जब मुद्रास्फीति की दर 10% से अधिक तथा 30% तक रहे, तब यह भागती हुई मुद्रास्फीति कहलाती है। यह किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेत नहीं है। यह दर्शाता है कि मुद्रास्फीति नियंत्रण से बाहर जा रही है। अत: इसे नियंत्रित करना अनिवार्य है।

चरम मुद्रास्फीति (Galloping/Hyper Inflation)-

जब मुद्रास्फीति नियंत्रण से पूर्णता बाहर चली जाए, तब इसे चरम मुद्रास्फीति कहते हैं। यहां मुद्रास्फीति के तीनों ही कारक अपने चरम पर होते हैं। अत: यह अर्थव्यवस्था के लिए अत्यधिक बुरा संकेत है।

thankyou!

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