मूल अधिकार: अर्थ, परिभाषा, विशेषताएँ, आवश्यक्ताएँ आदि।

आजादी के बाद, भारतीय संविधान निर्माताओं ने यह सुनिश्चित किया था कि, देश के नागरिकों को उन अधिकारों की गारंटी मिले, जिन्हें किसी भी दशा में छीना नहीं जा सकता। मूल अधिकार भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। जिनका हर भारतीय नागरिक जन्मजात रूप से हकदार है। ये अधिकार सरकार द्वारा बनाए गए किसी भी कानून से सर्वोपरि होते हैं। आइए, अब हम इन मूल अधिकारों के बारे में गहराई से जानने का प्रयास करते है।

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मूल अधिकार क्या हैं?

आप जिस राज्य के अधीन जीवन व्यतीत करते हैं, वह राज्य आपको कुछ अधिकार प्रदान करता है। (जैसे- जीवन जीने का अधिकार, बात करने की स्वतंत्रता, कमाने का अधिकार आदि।) ताकि आपका चौतरफा विकास हो सके।

वास्तव में यदि ये अधिकार भी हमारे पास न हो, तो हमें अपनी जिंदगी गुलामों की तरह जीना पडेगा। मूल अधिकार नागरिकों को सरकार द्वारा दमन से बचाने और उन्हें एक स्वतंत्र और सम्मानजनक जीवन जीने में मदद करने के लिए महत्वपूर्ण हैं।

भारतिय संविधान में मूल अधिकार को भाग-3 में अनु-12-35 के मध्य रखा गया है।

मूल अधिकार

भारतीय संविधान में कौन-कौन से मूल अधिकार दिए गए हैं?

भारतीय संविधान में अनुच्छेद-12-35 तक मूल अधिकारों का उल्लेख किया गया है। इनमें अनुच्छेद-14-32 तक विशिष्ट मूल अधिकार वर्णित है जबकि शेष अनुच्छेदों का संबंध मूल अधिकारों से संबंधित कुछ अन्य उपबंधों से है।

मूल सविधान में अधिकारों के सात वर्ग थे, किंतु ‘44वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा ‘संपत्ति का अधिकार’ (Right to property) हटा दिये जाने के कारण अब मूल अधिकारों के छः वर्ग रह गए हैं। इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है-

1. समता का अधिकार(Right to Equality) (अनुच्छेद-14-18)

  • अनुच्छेद-14- विधि के समक्ष समता ( Equality before law) एवं विधियों का समान संरक्षण (Equal protection of laws)।
  • अनुच्छेद-15- धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद(discrimination) का प्रतिषेध (prohibition)।
  • अनुच्छेद-16- लोक-नियोजन(public employment) के विषय में अवसर की समता।
  • अनुच्छेद-17- अस्पृश्यता (untouchability) का उन्मूलन।
  • अनुच्छेद-18 उपाधियों का अंत (abolition of titles)।

2. स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom) (अनुच्छेद-19-22)

  • अनुच्छेद-19- अभिव्यक्ति की स्वतंत्र्ता सहित 6 अधिकार (1) भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, (2) शांतिपूर्ण सम्मेलन का अधिकार, (3) संघ, संगठन या सहकारी समिति बनाने का अधिकार, (4) भारत में कही भी अबाध संचरण का अधिकार, (5) भारत में कहीं भी निवास का अधिकार, (6) कोई वृति (profesion), व्यापार आदि करने का अधिकार।
  • अनुच्छेद-20- अपराधों के लिये दोष-सिद्धि के संबंध में संरक्षण।
  • अनुच्छेद-21– प्राण (life) एवं दैहिक स्वतंत्रता (personal liberty) का अधिकार।
  • अनुच्छेद-21 (क)- प्राथमिक शिक्षा (6-14 वर्ष को आयु तक) कर अधिकार।
  • अनुच्छेद-22- कुछ दशाओं में गिरफ्तारी (arrest) और निरोध (detention) से साक्षण।

3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (Right Against Exploitation) (अनुच्छेद-23-24)

  • अनुच्छेद-23- मानव के दुपार (human trafficking), बलात् श्रम (forced labour) तथा बेगार का प्रतिषेध।
  • अनुच्छेद-24– कारखानों आदि में बच्चों के नियोजन का प्रतिषेध।

4. धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (Right to freedom of Religion) (अनुच्छेद-25-28)

  • अनुच्छेद-25- अंत:करण (conscience) की स्वतंत्रता और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार (propagate) करने की स्वतंत्रता।
  • अनुच्छेद-26- धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता।
  • अनुच्छेद-27- किसी धर्म की अभिवृद्धि के लिये कर नहीं देने की स्वतंत्रता।
  • अनुच्छेद-28- कुछ शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना (worship) में उपस्थित होने से स्वतंत्रता।

5. संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (Cultural and Educational Rights) (अनुच्छेद-29-30)

  • अनुच्छेद-29– भाषा, लिपि और संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार।
  • अनुच्छेद-30- शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का “अल्पसंख्यक वर्गों काे अधिकार

6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (Right to Constitutional Remedies) (अनुच्छेद-32)

  • अनुच्छेद32– संवैधानिक उपचारों का अधिकार (Right to constitutional remedies)।

उपरोक्त 6 मूल अधिकर विशिष्ट मूल अधिकार है। इसके अलावा कुछ अन्य अनुच्छेदों को भाग-3 मे शामिल किया गया है। जैसे –

  • अनुच्छेद-12- संविधान के भाग 3 के प्रयोजन के लिए राज्य की परिभाषा दी गई है।
  • अनुच्छेद-13- संविधान पूर्व या संविधान पश्चात निर्मित अन्य विधियों से मूल अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी।
  • अनुच्छेद-33- सेना, पुलिस, सुरक्षा बलों, आसूचना संगठनों आदि के मूल अधिकारों को सीमित करने की संसद की शक्ति।
  • अनुच्छेद-34- सेना विधि लागू होने की स्थिति में मूल अधिकारों को सीमित करने की संसद की शक्ति।
  • अनुच्छेद-35- इस भाग में अपराध घोषित किए गए कार्यों के लिए दंड निर्धारित करने हेतु विधि बनाने की संसद की शक्ति।

कौन सा मूल अधिकार संविधान से हटा दिया गया है?

अनुच्छेद-31‘ में पहले ‘संपत्ति को अधिकार’ (Right to property) था। जो उपरोक्त वर्णित छः वर्गों से अलग सात अर्थात् सातवाँ अधिकार था। इसे ’44वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1978′ द्वारा संविधान से हटा दिया गया था।

अब अनुच्छेद-31 (1) तथा 31(2) के विलोपन के बाद अनुच्छेद-31 (क), 31 (ख) तथा 31(ग) ही संविधान में शेष हैं पर उनका संबंध कोई मूल अधिकार देने से नहीं, बल्कि कुछ विधियों को सुरक्षा प्रदान करने से है। ये वे विधियाँ हैं जो राज्य के कल्याणकारी उद्देश्यों की पूर्ति के लिये मूल अधिकारों को सीमित करने का उपबंध करती है।

मूल अधिकार क्यों आवश्यक हैं?

संविधान सभा द्वारा संविधान में मूल अधिकारों की व्यवस्था किया गया, इसके पीछे कुछ विशेष कारण थे, जैसे-

1. जनता निरक्षर होने के कारण-

भारत की अधिकांश जनता निरक्षर होने के कारण अपने राजनीतिक हितों और अधिकारों को नहीं समझती थी। इसलिये, यह खतरा लगातार विद्यमान था कि कहीं राज्य उसके मूल अधिकारों का हनन न कर दे।

2. संसदीय शासन प्रणाली-

संसदीय शासन प्रणाली (Parliamentary System) में यह खतरा और ज्यादा बढ़ जाता है क्योंकि कार्यपालिका (Executive) का विधायिका (Legislature) में बहुमत होता है जिसका अर्थ यह है कि सरकार, संसदीय बहुमत का प्रयोग करके मूल अधिकारों को छीनने वाला कानून बना सकती है।

3. कमजोर वर्गों को मुख्य धारा में लाने के लिए-

भारतीय समाज में दलितों, आदिवासियों तथा स्त्रियों सहित कई ऐसे वर्ग थे, जो लंबे समय से वर्चस्वशाली वर्गों के हाथों दमन और शोषण का शिकार हो रहे थे। ऐसे वर्गों को मुख्यधारा में लाने के लिये मूल अधिकारों की व्यवस्था करना जरूरी था। गौरतलब है कि, डॉ. अंबेडकर तथा कई अन्य नेता इन वगों को मुख्यधारा में लाने के लिये प्रयत्नशील थे।

4. राज्य सरकारों से सुरक्षा-

भारत में संघात्मक पद्धति (Federal System) को स्वीकार किया गया था और यह संभावना अपनी जगह कायम थी कि, कहीं किसी प्रांत की सरकार नागरिकों के अधिकार न छीनने लगे। इस संभावना को दूर करने का उपाय यही था कि संविधान में ही मूल अधिकारों की गारंटी दे दी जाए तथा राज्य सरकारें संविधान से बंधी हों।

5. बिशेषाधिकार से सुरक्षा-

मूल अधिकारों की घोषणा करने की जरूरत इसलिये भी थी, ताकि जनता को यह बोध हो जाए कि अब किसी भी व्यक्ति के पास विशेपाधिकार (Privileges) नहीं है और सभी भारतीय नागरिक विधि के समक्ष समान हैं।

6. बहुमत की तानाशाही को रोकना-

भारत में धार्मिक और नस्लीय वैविध्य काफी ज्यादा है तथा अल्पसंख्यक वर्ग अपनी कम जनसंख्या के कारण सरकार के निर्माण में प्रायः कमजोर सिद्ध होते हैं।

यह खतरा भी महसूस किया जा रहा था कि यदि बहुसंख्यक लोग किसी एक संप्रदायवादी दल के पक्ष में आ जाएँ तो उस दल की सरकार विभेदकारी कानून बना सकती है। बहुमत की ऐसी तानाशाही (Dictatorship of the majority) से अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए भी मूल अधिकारों की जरुरत थी।

मूल अधिकारों की विशेषताएँ क्या हैं?

विभिन्न देशों में मूल अधिकारों की प्रकृति भिन्न- भिन्न होती है। इसलिए मूल अधिकारों की पूर्णतः निश्चित विशेषताएँ बताना संभव नहीं है। हाँ , भारतीय राजव्यवस्था की दृष्टि से मूल अधिकारों की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ मानी जा सकती है-

1. व्यक्ति के विकास के लिये आवश्यक-

मूल अधिकार वे आधारभूत स्थितियाँ उत्पन्न करते हैं, जो व्यक्ति के पूर्ण मानसिक, भौतिक और नैतिक विकास के लिये आवश्यक होती हैं। शेष अधिकारों के संबंध में यह हमेशा नहीं कहा जा सकता।

2. संविधान में उल्लिखित-

मूल अधिकार देश की मौलिक विधि (Fundamental law) अर्थात् संविधान में उल्लिखित होते हैं। ये सविधान द्वारा रक्षित होते हैं।

3. शक्ति को मर्यादित करना-

आमतौर पर, मूल अधिकार सिर्फ कार्यपालिका (Executive) की शक्ति को मर्यादित नहीं करते, बल्कि विधानमंडल (Legislature) की शक्ति को भी नियंत्रित करते हैं। यदि विधायिका इन अधिकारों का उल्लंघन करने वाली कोई विधि (Law) बनाती है, तो वह उस सीमा तक निष्प्रभावी या शून्य (Void) हो जाती है, जहाँ तक वे मूल अधिकारों का उल्लंघन करती है।

4. परिवर्तन करने के लिये संविधान में संशोधन की आवश्यकता-

मूल अधिकारों में परिवर्तन करने के लिये संविधान में संशोधन करना जरूरी होता है, जबकि शेष कानूनी या विधिक (Legal or statutory) अधिकारों के मामले में आमतौर पर संविधान संशोधन की आवश्यकता नहीं होती। कानूनी अधिकार के मामले में सविधान संशोधन की जरूरत सिर्फ तब होती है, जब वह संविधान के द्वारा दिया गया हो। अगर कानूनी अधिकार किसी अधिनियम के माध्यम से दिया गया है, तो उसमें साधारण विधेयक से ही संशोधन किया जा सकता है। संविधान संशोधन की जरूरत नहीं होती।

क्या सभी कानूनी अधिकार मूल अधिकार होते हैं?

सभी कानूनी अधिकार मूल अधिकार नहीं होते हैं, जैसे- उपभोक्ता अधिकार (Consumer Rights) कानूनी अधिकार तो हैं, लेकिन मूल अधिकार नहीं है।

इसी प्रकार, संपत्ति का अधिकार भी (Right to property), जो पहले मूल अधिकार था, वह अब कानूनी अधिकार है, पर मूल अधिकार नहीं। व्यापार और वाणिज्य की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद-301) भी कानूनी अधिकार का ही उदाहरण है।

मूल अधिकारों की प्रकृति व स्वरुप कैसा है?

मूल अधिकार नकारात्मक भी हो सकते हैं और सकारात्मक भी। उनका स्वरूप प्राकृतिक अधिकारों (Natural rights) की तरह भी हो सकता है और सामान्य कानूनी या विधिक अधिकारों (Legal rights) की तरह भी।

यह इस बात पर निर्भर करता है, कि उस देश की राजव्यवस्था का स्वरूप कैसा है? जहाँ तक भारतीय संविधान व राजव्यवस्था का प्रश्न है, उसमें दिये गए मूल अधिकार इन सभी वर्गों में अलग-अलग मात्रा में समायोजित किये जा सकते हैं।

Thankyou!

This Post Has 3 Comments

  1. bihari

    thankyou sir its to eassy in read love you sir

  2. bipin

    thanks sir

  3. Thakur

    Thank you for your dreams

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