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राज्य क्या है? परिभाषा, तत्व, उदाहरण सहित।

“राज्य क्या है?” को समझने से पहले जरूरी है, कि राजव्यवस्था (Polity) के कुछ मूलभूत अवधारणाओं तथा पारिभाषिक शब्दावली (Terminology) से आप परिचित हो। ऐसी कुछ महत्वपूर्ण अवधारणाएँ तथा उनको व्याख्या आगे दी गई है।

राज्य क्या है? (What is State?)

राजव्यवस्था से जुड़ी सबसे प्राथमिक अवधारणा ‘राज्य’ (State) है। राज्य शब्द का प्रयोग यूँ तो विभिन्न प्रांतों (Provinces), जैसे उतर प्रदेश, तमिलनाडु आदि को सूचित करने के लिये भी होता है, किन्तु इसका वास्तविक अर्थ किसी प्रांत से न होकर किसी समाज को राजनीतिक संरचना (Political Structure) से होता है।

वस्तुत: यह एक अमूर्त (Abstract) अवधारणा है अर्थात् इसे बौद्धिक स्तर पर समझा तो जा सकता है, किंतु देखा नहीं जा सकता।

उदाहरण के लिये भारत की सरकार, संसद, न्यायपालिका, राज्यों की सरकारें, नौकरशाही से जुड़े सभी अधिकारी इत्यादि की समग्र संरचना ही राज्य कहलाती है।

किसी समाज के विकसित व सक्षम होने की पहचान इस बात से भी होती है, कि वह एक स्वतंत्र राज्य के रूप में विकसित हो सका है या नहीं?

विश्व के अधिकांश विकसित देशों में एक स्थिर राजनीतिक प्रणाली का दिखाई देना (जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया में) और स्थिर राजनीतिक प्रणाली से वंचित देशों (जैसे कुछ समय पहले के अफगानिस्तान) में विकास प्रक्रिया का अवरुद्ध हो जाना इसी बात का प्रमाण है।

राज्य के तत्त्व (Elements of State)

किसी भी राज्य के होने की शर्त है कि उसमें चार तत्व विद्यमान हों-

  • भू-भाग (Geographical Area)
  • जनसंख्या (Population)
  • सरकार (Government)
  • संप्रभुता या प्रभुसत्ता (Sovereignty)

भू-भाग (Geographical Area):-

एक ऐसा निश्चित भौगोलिक प्रदेश होना चाहिये, जिस पर उस ‘राज्य’ की सरकार अपनी राजनीतिक क्रियाएँ करती हो।
उदाहरण के लिये, भारत का संपूर्ण क्षेत्रफल भारत राज्य का भौगोलिक आधार या भू-भाग है।

जनसंख्या (Population):-

राज्य होने की शर्त है कि उसके भू-भाग पर निवास करने वाला एक ऐसा जनसमुदाय होना चाहिये, जो राजनीतिक व्यवस्था के अनुसार संचालित होता हो। यदि जनसंख्या ही नहीं होगी तो राज्य का अस्तित्व निरर्थक हो जाएगा।

सरकार (Government):-

सरकार एक या एक से अधिक व्यक्तियों का वह समूह है, जो व्यावहारिक स्तर पर राजनीतिक शक्ति का प्रयोग करता है।

‘राज्य’ (State) और ‘सरकार’ (Government) में यही अंतर है, कि राज्य एक अमूर्त संरचना (Abstract structure) है, जबकि सरकार उसकी मूर्त (Concrete) व व्यावहारिक अभिव्यक्ति।

संप्रभुता या प्रभुसत्ता (Sovereignty):-

यह राज्य का अत्यंत महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इसका अर्थ है कि राज्य के पास अर्थात् उसकी सरकार के पास अपना भू-भाग और जनसंख्या की सीमाओं के भीतर कोई भी निर्णय करने को पूरी शक्ति होनी चाहिये तथा उसे किसी भी बाहरी और भीतरी दबाव में निर्णय करने के लिये बाध्य नहीं होना चाहिये।

नोट- राज्य के ये चारों तत्त्व अनिवार्य है, वैकल्पिक नहीं। यदि इनमें से एक भी अनुपस्थित हो तो राज्य की अवधारणा निरर्थक हो जाती है।

उदाहरण –

  • कभी-कभी ऐसा होता है कि सरकार भी होती है और जनता भी, किंतु भू-भाग नहीं होता। उदाहरण के लिये, तिब्बत की सरकार का संकट यही है।  चीनी आक्रमण के कारण जब ‘दलाई लामा’ को भारत की शरण लेनी पड़ी और वे हिमाचल प्रदेश के ‘धर्मशाला’ नामक स्थान से तिब्बत की निर्वासित सरकार का संचालन करने लगे तो एक विचित्र सी स्थिति उत्पन्न हो गई।   क्योंकि तिब्बत की सरकार और कुछ जनता तो यहाँ थी, किंतु उनके पास न तो अपना भू भाग वा और न ही अपने मूल भू-भाग के संबंध में स्वतंत्र निर्णय करने की ताकत या संप्रभुत्ता।
  • कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि सरकार भी हो, जनता भी हो. भू-भाग भी हो किंतु संप्रभुता की कमी के कारण राज्य की धारणा पूरी न हो सकें। उदाहरण के लिये, पराधीन भारत में जब वायसराय, भारतीय भू-भाग का सवर्वोच्च प्रशासक होता था तो एक निश्चित भू-भाग के भीतर जनता उसकी आज्ञाओं का पालन करती थी। कितु, तब भी वह संप्रभु नहीं था क्योकि वह ब्रिटेन की सरकार के आदेशों के तहत कार्य करता था।
  • जब किसी देश में अराजक स्थितियाँ पैदा हो जाती हैं तो भी राज्य का ढाँचा चरमराने लगता है।   उदाहरण के लिये, अफगानिस्तान में लंबे समय तक कई गुटों में झगड़ा चलता रहा और अलग-अलग गुट देश के अलग-अलग हिस्से पर कब्ज़ा जमाने में सफल होते रहे। ऐसी स्थिति में सरकार की शक्तियाँ व्यावहारिक स्तर पर शून्य हो जाती हैं, इसलिये उसकी संप्रभुता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है।

राजनीतिक व्यवस्था की आवश्यकता क्यों पड़ती है?

एक स्वाभाविक प्रश्न यह भी उठता है कि क्या मानव समाज को उचित तरीके से रहने के लिये सचमुच राजनीतिक व्यवस्था की जरूरत है या नहीं? और यदि हाँ, तो क्यों?

कुछ लोग मानते हैं कि मनुष्य को राजनीतिक व्यवस्था को जरूरत है ही नहीं। राजनीतिक व्यवस्था तो मनुष्य के इतिहास की गलतियों का एक परिणाम है। यदि सारे मनुष्य समझदारी और पारस्परिक विश्वास के साथ काम करें, तो राजनीतिक व्यवस्था की ज़रूरत अपने आप ही खत्म हो जाएगी।

ऐसा मानने वालों में कार्ल मार्क्स तथा अन्य मार्क्सवादी विचारक तो थे ही, स्वयं महात्मा गांधी भी मानते थे, कि जब समाज के प्रत्येक सदस्य को अपने ‘आत्मिक उन्नति’ का पर्याप्त अवसर मिलेगा, तो राजनीतिक व्यवस्था की जरूरत नहीं रहेगी।

किंतु, यदि कुछ एक लोगों की राय को छोड़ दें, तो अधिकांश विचारकों की सोच यही है, कि राज्य का अस्तित्व मनुष्य के लिये जरूरी होता है। इसकी प्रमुख वजह यह मानी गई है कि, मनुष्य चाहे जितना भी विवेकशील प्राणी हो, वह कभी-कभी या आमतौर पर अपने स्वार्थ के अधीन होता ही है तथा दूसरे व्यक्तियों से उसके टकराव की स्थितियाँ बनती रहती हैं।

राज्य का ढाँचा सभी मनुष्यों को एक निश्चित कानून व्यवस्था के दायरे में ले आता है। ताकि अपनी मूल असुरक्षाओं से मुक्त होकर सभी एक सहज जीवन व्यतीत कर सकें।
कई महान विचारकों ने तो यहाँ तक कहा है कि मनुष्य को सही अर्थों में मनुष्य बनने का मौका तभी मिलता है, जब वह राज्य की आज्ञाओं का पालन करता है।

यदि राज्य और कानून नहीं होंगे, तो समाज के ताकतवर लोग कमजोर लोगों पर शक्ति का दुरुपयोग करेंगे और कमजोर लोग हमेशा भय में रहेंगे। अपने व्यक्तित्व का सहज विकास नहीं कर सकेंगे।

मानव समाज को सचमुच राजनीतिक व्यवस्था की आवश्यकता है। इसका एक प्रमाण बहुत ही स्पष्ट है कि, इतिहासकारों और मानवशास्त्रियों (Anthropologists) ने अभी तक प्राचीन-से-प्राचीन और सरल-से-सरल जितने भी समाजों-का-अध्ययन किया है, उन सभी में किसी-न-किसी रूप में राजनीतिक ढाँचे (Political) structure) की उपस्थिति देखी गई है, चाहे वह ढाँचा परतंत्र (Monarchy) का हो, लोकतंत्र (Democracy) का या तानाशाही (Dictatorship) का।

यह ध्यान रखना जरूरी है कि आज के समय में राजनीतिक व्यवस्था की भूमिका काफी ज्यादा बढ़ गई है। जनसंख्या की अधिकता के कारण यह बिल्कुल संभव नहीं रहा है कि लोग आपसी सहमति से ही काम चला लें।

औपचारिक कानूनों के निर्माण और कानूनों को लेकर होने वाले विवादों की स्थिति में न्यायिक प्रक्रियाओं की जरूरत बहुत अधिक मात्रा में पड़ने लगी है। इतना ही नहीं, आज की राजनीतिक व्यवस्था सिर्फ कानून का पालन करवाने तक सीमित नहीं है, अब उसने लोक कल्याणकारी राज्य(Welfare state)’ का रूप धारण कर लिया है और समाज के सभी वर्गों को स्वतंत्रता, समानता और न्याय उपलब्ध कराना अब उसकी जिम्मेदारी हो गई है।

भारत में राजनीतिक व्यवस्था की अवश्यक्ता क्यों है?

भारत में राजनीतिक प्रणाली का प्रश्न है, इसकी आवश्यकता को कई स्तरों पर महसूस किया जा सकता है जैसे-

1. राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया-

भारत में राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया (Nation building process) अभी चल रही है, जिसे राष्ट्र विरोधी ताकते नुकसान पहुंचा सकती हैं। ऐसे खतरों से निपटने के लिये मजबूत राजनीतिक प्रणाली ज़रूरी है।

2. आंतरिक सुरक्षा-

भारत को आंतरिक सुरक्षा (Internal security) के समक्ष अभी कई चुनौतियाँ हैं, जैसे- आतंकवादं (Terrorism). नक्सलवाद (Naxalism), अलगाववाद (Separatism) इत्यादि। इन चुनौतियों से हम तब तक नहीं निपट सकते, जब तक हमारे पास राज्य का एक मजबूत ढाँचा न हो।

3. एक कल्याणकारी राज्य-

भारतीय राज्य एक कल्याणकारी राज्य (Welfare state) है और यह वचित वर्गों (Deprived classes) को समानता की स्थिति में लाने के लिये गंभीर प्रयास करता है। आरक्षण (Reservation) तथा सामाजिक न्याय (Social justice) की अन्य नितियाँ इसी उद्देश्य से लागू की जाती है।

चूंकि भारतीय समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा (जैसे- स्त्रियाँ, बच्चे, पिछड़ी जातियाँ तथा अल्पसंख्यक समुदाय) भिन्न-भिन्न दृष्टियों से वंचन (Deprivation) का शिकार रहा है और उन्हें समाज को मुख्यधारा (Mainstream में लाने के लिये जरूरी है कि सरकार की ओर से उन्हें विशेष सुविधाएँ दी जाएँ, इसलिये भारत के लिये एक सुगठित राजनीतिक संरचना जरूरी है।

4. विभिन्न हित-समूह-

भारत में विभिन्न हित-समूह (Interest groups) रहते हैं, जिनके बीच अपने हितों को लेकर टकराव होना स्वाभाविक है। इन हितों में सामंजस्य करते हुए उचित कानूनों के निर्माण के लिये संसद (Parliament) की जरूरत है, जबकि ऐसे विवादों का न्यायिक समाधान करने के लिये एक सशक्त और सुलझी हुई न्यायपालिका (Judiciary) भी ज़रूरी है।

5. तीव्र सामाजिक परिवर्तन-

भारतीय समाज तीव्र सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तनों (Social changes) के दौर से गुजर रहा है, जिसके कारण वंचित वर्ग (Deprived classes) अपने अधिकारों की मांग बुलंद कि कर रहे हैं। इससे समाज के वे तबके असहज हैं, जो पुरानी व्यवस्था में लाभकारी स्थिति में थे। ये परिवर्तन स्वाभाविक तौर पर तनावों को जन्म देते हैं, जो कभी-कभी दलितों तथा स्त्रियों के विरुद्ध होने वाले अत्याचारों के रूप में दिखाई पढ़ते हैं।

सामाजिक परिवर्तन (Social change) तथा आधुनिकीकरण (Modernisation) की इस प्रक्रिया को इन दबावों से बचाने के लिये तथा उसे सुचारु रूप से चलाने के लिये सशक्त राजनीतिक ढाँचे की जरूरत पड़ती है।

Thankyou!

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