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Oil Politics तेल की राजनीति

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तेल की राजनीति
Oil Politics तेल की राजनीति

20 वीं शदी के मध्य तक अमेरिका तेल का सबसे बड़ा उत्पादक देश रहा था। और अमेरिका ही तेल की कीमतों पर नियंत्रण रखता था। लेकिन मध्य पूर्व एशिया में तेल भंडार की खोज के बाद क्रूड आयल को लेकर शक्ति राजनीति में वृद्धि देखी गई।

प्रारंभिक चरण में मध्य पूर्व एशिया में अमेरिकी व यूरोपीय कंपनियों (7 Sisters) द्वारा ऊर्जा के क्षेत्र में व्यापक निवेश किए गए। यहां तेल के कुओं पर उनका नियंत्रण हो गया। हालांकि इस क्षेत्र के मुख्य तेल उत्पादक देश तेल की कीमतों के निर्धारण पर अपना नियंत्रण चाहते थे।

इसलिए अपनी सामूहिक सौदेबाजी को बढ़ाने के लिए इन तेल निर्यातक देशों द्वारा 1960 में बगदाद में ओपेक का गठन किया गया। ओपेक के पांच संस्थापक सदस्य सऊदी अरब, ईरान, इराक, कुवैत और बेनेजुएला थे।

वर्तमान में इसमें 13 सदस्य हैं। 1965 में इसका मुख्यालय वियना में स्थापित किया गया।

वर्तमान में ओपेक देशों के पास विश्व के कुल प्रमाणित तेल भंडार का 79.5% हिस्सा है। और ओपेक देश वैश्विक तेल उत्पादन का 39.7% उत्पादन करते हैं। ओपेक संगठन का उद्देश्य तेल की कीमतों के निर्धारण में केंद्रीय भूमिका निभाना है।

तेल की कीमतों पर नियंत्रण को लेकर ओपेक देश और अमेरिकी यूरोपीय कंपनियों के मध्य विवाद होते रहते हैं। 1973 में अरब इजरायल युद्ध में अमेरिका द्वारा इजराइल के समर्थन पर ओपेक देश नाराज हो गए।

इसी पृष्ठभूमि में ओपेक देशों ने अमेरिका सहित इसराइल को समर्थन करने वाले देशों के तेल निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया और साथ-साथ तेल के उत्पादन में कटौती भी कर दी। इस तेल प्रतिबंध ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को गंभीर रूप में प्रभावित किया। क्योंकि वियतनाम संघर्ष के कारण अमेरिका की विदेशी पेट्रोलियम पर निर्भरता बढ़ती गई थी।

इस घटना के बाद ओपेक देशों का तेल की कीमतों के निर्धारण पर नियंत्रण बढ़ गया । वही तेल राजनीति में एक प्रमुख हिस्सेदार रुस भी है। रूस के पास प्राकृतिक गैस का विशाल भंडार है।

इसलिए वह भी तेल की कीमतों को नियंत्रित करने में अपनी भूमिका बढ़ाना चाहता है। लेकिन रूस और ओपेक देशों के हित परस्पर विरोधी है। इसी क्रम में 2016 में ओपेक प्लस की धारणा प्रस्तुत की गई।

इसके तहत रूस और सऊदी अरब के मध्य तेल और प्राकृतिक गैस के उत्पादन के संबंध में उत्पादन स्थापित करने के लिए समझौता हुआ हालांकि कोविड आपदा के दौरान रूस और सऊदी अरब के मध्य ऑयल प्राइस वार भी देखा गया

वर्तमान विश्व अनेक महत्वपूर्ण बदलावों से गुजर रहा है। इसी क्रम में वैश्विक ऊर्जा बाजार में भी संरचनात्मक परिवर्तन देखे जा रहे हैं। जैसे ऊर्जा के नए वैकल्पिक केंद्र का विकास (अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, अमेरिका और रूस ) तथा ऊर्जा के नए स्रोतों का विकास ( नवीकरणीय ऊर्जा, नाभिकीय ऊर्जा, सेल गैस, हाइड्रोजन ऊर्जा )

इसके कारण तेल और प्राकृतिक गैस उत्पादक देशों की भविष्य पर गंभीर प्रश्न उपस्थित हो रहा है। वही 2015 में पेरिस सम्मेलन के बाद जीवाश्म ईंधन के स्थान पर नवीकरणीय ऊर्जा पर अधिक बल दिया जा रहा है।

अनेक देशों द्वारा 2050 तक 0 उत्सर्जन का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इससे भी तेल उत्पादक देश और कंपनियों के भविष्य पर प्रश्न उपस्थित हुआ है। पेरिस सम्मेलन के बाद से ही तेल उत्पादक देश पर उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए दबाव निर्मित हुआ है।

लेकिन इससे तेल उत्पादन के लागत में वृद्धि होगी। जो तेल की कीमतों में वृद्धि का भी कारण बनेगा।

यही कारण है, कि अनेक महत्वपूर्ण तेल कंपनियां अब स्वयं को ऊर्जा कंपनियों के रूप में परिवर्तित कर रही है।

अर्थात इनके द्वारा नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में निवेश किया जा रहा है। जिससे नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में बेहतर अनुसंधान और विकास हो पाएगा। तथा बेहतर तकनीकी विकास से नवीकरणीय ऊर्जा की लागत में कमी आएगी। जिससे पेट्रोलियम की तुलना में इनकी मांग बढ़ती जाएगी।

Thankyou!

This Post Has One Comment

  1. Hii

    Thanks 😊😊😊

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